यह अकल्पनीय है कि आज से लगभग 100 वर्ष पहले कोई महिला आधुनिक कृषि पद्दत्ति अपना कर अन्य साथी किसानों से ज्यादा कृषि उपज प्राप्त कर सके!
आज कृषि वैज्ञानिक कृषकों को सिंचाई के समय देशी/रासायनिक खाद को सिंचाई के स्रौत पर पानी में घोलकर सिंचाई करने की सलाह देते हैं ताकि खाद का सम्पूर्ण खेत में समानुपातिक वितरण करके अधिक उपज प्राप्त की जा सके। इस बात को अपने व्यवहारिक ज्ञान से हथछोया के नथवा सिंह दिलावरे की पत्नी दरबो गूजरी ने आज से लगभग 120 वर्ष पूर्व 1893 में समझकर प्रयोग किया जिसके अदभुद नतीजे हुए थे।
1858 में शामली में आज़ादी की लड़ाई में बनत मोर्चे पर चौधरी मोहर की शहादत हो गए और क्रान्तिकारियों की हार के बाद भजन सिंह दिलावरे अपने अन्य साथियों सहित क्रांति को जीवित रखने के लिए भूमिगत हो गए।
बाद में, हरियाणा के दिलावरा गांव में अंग्रेजों द्वारा भजन सिंह एवं उनके साथियों को सरेआम फांसी पर चढ़ा दिया गया।उनकी पत्नी दरबो गुर्जरी,जो उस समय गर्भवती थी किसी तरह जान बचाने में सफल हुई।वह दिलावरा गांव से अंग्रेजो के हाथ से सफाईकर्मी का वेश बनाकर बच निकली और अगले लगभग 10 वर्षों तक भूमिगत रहकर जान बचाने के लिए इधर उधर भटकती रही।पुलिस द्वारा क्रांतिकारी दिलावरे परिवार के जीवित बचे पुरुषों को "भगोडा" घोषित कर दिया था।
भजन सिंह दिलावरे के बलिदान के लगभग 3 माह बाद 25 दिसम्बर 1858 को उन्होंने नथवा सिंह को जन्म दिया।ब्रिटिश सरकार ने 1857 की क्रांति के बाद भारत सरकार का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और भारत में 1861 में इंडियन कॉउंसिल एक्ट लागू किया गया।परिस्थितियां अनुकूल होने पर 1870 की गर्मियों में नथवा सिंह को लेकर अपने मायके संदल नवादा (हरियाणा) से दरबो गूजरी पुनः अपनी ससुराल हथछोया चली आई।अब नथवा सिंह 12 वर्ष के हो चुके थे।15 वर्ष की उम्र में नथवा सिंह दिलावरे का भूरा(कैराना) की धर्मवती के साथ विवाह हो गया।धर्मवती को प्यार से लोग धर्मी कहते थे।धर्मवती ने चार पुत्रों को जन्म दिया: राजाराम, बख्तावर सिंह, सूरजराम एवं मामराज सिंह।1857 की क्रांति के बाद दिलावरों की जमीन अंग्रेजो ने अपने चहेतों में बांट दी। शेष भूमि पर गांव के ही कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया।दरबो गूजरी के आने के बाद कुछ लोगों ने उन्हें खेती करके गुजारा करने के लिए थोड़ी भूमि दे दी।
दरबो गुजरी स्वयं बड़ी हष्टपुष्ट एवं कर्मठ थी।पुत्र नथवा सिंह भी माँ दरबो की भांति मजबूत कदकाठी का बलशाली युवक था।मां बेटे ने खूब मेहनत करके परिवार की पुनर्स्थापना की।शीघ्र ही नथवा सिंह के चारों पुत्र भी बाप के कंधे लग गए।दरबो गूजरी की सलाह पर खेत मे सिंचाई के लिए सन 1892 की बसन्त ऋतु के समय कुआं खोदने का निर्णय लिया गया।उन दिनों कुआं खोदना एक अत्यधिक श्रमसाध्य कार्य होता था। क्योंकि सम्पूर्ण खुदाई कार्य हाथ से ही करना पड़ता था।कुआं खेती,पशु और मानव सभी के लिए जल का अहम स्रौत था।इसलिए यह मानव के पूर्त लक्ष्यों में शामिल था।अतः कुआं खोदने में श्रमदान को लोग अत्यधिक पुण्य कार्य मानते थे।नथवा सिंह ने चारों बेटों को हथछोया गांव में व्यक्तिगत तौर पर लोगों को श्रमदान हेतु आमंत्रित करने के लिए भेजा।दरबो एवं नथवा सिंह जानते थे कि कुंआ निर्माण के लिए श्रमदान हेतु शायद ही कोई शूरमा आये। वही हुआ जिसकी आशंका उंन्हे थी।दिलावरों के बागी चरित्र एवं उन पर पुलिसिया निगरानी के कारण गांव से एक भी व्यक्ति कुआं निर्माण के लिए श्रमदान हेतु नही पहुंचा।अंत में दरबो गूजरी ने स्वयं शुरुआत की और नथवा सिंह अपने चारों बेटों के साथ कुएं की खुदाई पर लग गए। अपने अथक प्रयासों से 1892 की वर्षा ऋतु से पहले नथवा सिंह दिलावरे के परिवार ने स्वयं ही कुंआ खोदकर तैयार कर दिया।खेत,पशु और मानव के लिए जल की कुएं से प्राप्ति हुई।दरबो गूजरी एक प्रतिष्ठित परिवार की शिक्षित महिला थी।उसने खेत में आधुनिक प्रयोग किये और समकालीन सभी किसानों से कई गुणा कृषि उपज प्राप्त की।आज सम्पूर्ण विश्व में जैविक खेती लोकप्रिय होती जा रही है। दरबो के वंशज फूलसिंह दिलावरे एवं मंगल सिंह दिलावरे बताते थे कि दरबो गूजरी
2 किलो नीम की निबोली लेकर उसे सिल बट्टे से पीसकर बिल्कुल महीन बना लेती थी।उसके बाद इसमें 2 लीटर ताजा गौ मूत्र मिला और 10 किलो छांछ मिलाकर 4 दिन तक बड़े बड़े माठ में रखती थी। जिसे करीब 200 लीटर पानी में मिलवाकर वह खेत में छिड़काव भी करवाती थी। ताकि कीटों से फसल को नुकसान न हो।
नथवा सिंह एवं दरबो गूजरी गोबर,नीम की निबोली एवं गौमूत्र का घोल आवश्यकतानुसार बड़े मटकों में तैयार करती थे।इस घोल को 15-20 दिन ऊपर से बंद करके रखा जाता था ताकि इसकी स्लरी तैयार हो जाये।फिर खेत की सिंचाई के समय इस घोल को कुएं के जल निकास स्रौत पर ही जल में मिला दिया जाता था। ताकि यह स्लरी पूरे खेत में पानी से सिंचाई के साथ समानुपात में फैलकर आवश्यक कृषि पौषक तत्वों से कृषि उपज को लाभान्वित कर सके।
फूल सिंह दिलावरे (5जून 1907-12 अप्रैल 2012) जो नथवा सिंह के प्रपौत्र थे, बताते थे कि दरबो गूजरी हर कार्य को बड़े तरीके से करती थी।वह बड़ी संख्या में गाय-बैल रखती थी। जिनका गोबर एवं मूत्र तथा दूध से निर्मित लस्सी तक का खाद बनाकर खेत मे प्रयोग करवाती थी।
उपरोक्त में नीम पत्ती एवं निबोली चूर्ण का मिश्रण करके उसे डंडे और हाथ से मिलाने के बाद 15-20 दिनों तक छावं में रखवाती थी । पन्द्रह दिनों तक उस मिश्रण को हम सुबह शाम डंडे से घुमाते थे। पन्द्रह दिनों में वह खाद बनकर तैयार होती थी । फिर उस खाद को कुएं से निकलते हुए पानी मे मिलाकर खेत मे पहुंचाते थे।दो महीने में तीन बार इस तरह से खेत में खाद डाला जाता था।
उस समय ग्रामवासियों को इस तकनीकी की जानकारी नही थी।अतः उन्होंने इसका गलत अर्थ निकालकर गांव एवं आसपास के क्षेत्र में दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया कि दिलावरे कुएं के पानी में गोबर घोल देते है ताकि कोई पानी पीकर अपनी प्यास न बुझा सके।असल में यह ऐसा करने वाले लोगों की कुंठा एवं जलन को प्रदर्शित करता था। क्योंकि दिलावरे परिवार की तुलना में उनकी कृषि उपज एक चौथाई ही होती थी।वह नकारात्मक लोग थे जिन्होंने दिलावरों से नवीन कृषि तकनीकी सीखने की बजाय उनको बदनाम करने में अपनी ऊर्जा नष्ट कर दी।
समय ने दरबो गुर्जरी द्वारा तत्कालीन संदर्भों में अपनाई गई कृषि पद्दत्ति आज दुनियाभर में लोकप्रिय हो रही है।अतः दरबो की इस देन के लिए आज उंन्हे नमन करना जरूरी है।
(प्रस्तुत लेख लेखक का शौध पत्र है, लेख का महत्वपूर्ण अंश मंगलसिंह एवं फूलसिंह दिलावरे से हुई वार्ता पर आधारित है।)